Dil se...>>



किसी को सब्ज़ बाग़ों के नहीं सपने दिखाता हूँ
जो दिल में बात रहती है ज़बां पर वो ही लाता हूँ
शरारत पर मेरी उसका भी क्या रद्देअमल होता
कभी तन्हाइयों में सोच कर ये मुस्कुराता हूँ
नहीं तू तो खयाले अक्स आया बाम पर तेरा
निगाहे दीद जानिब घर के जब तेरे उठाता हूँ
नहीं कर पाता हूँ इज़्हारे उल्फत जाने क्यों उस से
पहुँच कर पास उसके बारहा मैं लौट आता हूँ
तसव्वुर उसका अश्कों से ज़रा मेरे नहा तो ले
ठहर जा ऐ ग़मे हिजरां अभी तुझको सुलाता हूँ
नहीं महदूद रहती आसमां तक ही मेरी पर्वाज़
ख़यालों के समन्दर में भी मैं ग़ोते लगाता हूँ...
                       ...Dil se...>>

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